आत्म-साक्षात्कार अर्थात् आत्मानुभूति और परमात्म अनुभूति करने के लिए नीचे दी गई विधि द्वारा जैसे आप अपने मन के अन्दर उन विचारों का निर्माण करते जायेंगे ! इतना ही नहीं लेकिन उन विचारों के निर्माण के साथ-साथ उन भावनाओं को भी अन्दर उत्पन्न करते चलें ! जितना भावनाओं को उत्पन्न करेंगे , तो महसूस करना आसान हो जायेगा , सहज , स्वाभाविक हो जायेगा ! तो इसलिए चलतें हैं , हम अब ध्यान की ओर...और जैसे परमात्मा ने अर्जुन को कहा कि अनन्य भाव से तुम अपने मन को मेरे में लगाओ ! अपने मन को बाह्य सभी बातों से समेट लें ! अपने मन के अन्दर शुभ संक्लपों का निर्माण करें ! अंतर्चक्षु से....स्वयं को अपने दिव्य स्वरूप में.... भृक्रुटी के अकालतख़्त पर....विराजमान देखते हैं.... स्वयं को...आत्म स्थिति में... स्थित कर रहे हैं... ये शरीर... मेरा साधन है... क्षेत्र है.... कर्म करने का..मैं आत्मा क्षेत्रक्ष हूँ ..धीरे-धीरे... अपने मन और बुद्धि को...इस देह के भान से उपराम...करते जाते हैं.. और स्वयं को...ले चलते हैं.. यात्रा पर...परमधाम की ओर.. शान्तिधाम की ओर... जहाँ सूर्य , चंद्र , तारागणों का प्रकाश पुहंच नहीं सकता.. पंच महातत्व की दुनिया से दूर...दिव्य लोक में... ब्रह्यमहातत्व...परमात्मा के सानिध्य में... इस लोक में.. मैं आत्मा स्वयं को मुक्त्त अवस्था में महसूस कर रही हूँ.. कोई बन्धन , कोई बोझ नहीं है.. मैं स्वयं को...एकदम हल्के स्वरूप में.. देख रही हूँ... चारों ओर.. पवित्रता की... दिव्य आभा फैली हुई है...मैं आत्मा... अपने असली स्वरूप में.. शुद्ध सतोप्रधान... ये मेरा पवित्र स्वरूप है.... असली स्वरूप में... सत्य गुण... ये मेरी वास्तविकता है... यही मेरे असली संस्कार हैं... इस संस्कार में स्थित.. मैं स्वयं को..इतना न्यारे और प्यारे..स्वरूप में... अलौकिक स्वरूप में देख रही हूँ... धीरे-धीरे मैं स्वयं को पिता...परमात्मा के सानिध्य में देख रही हूँ... जैसे मैं आत्मा दिव्य प्रकाशपुंज हूँ.. वैसे मेरा पिता परमात्मा भी.. सूर्य के समान प्रकाशमान हैं... परन्तु चंद्रमा के समान..शीतल स्वरूप हैं.. अग्नि के समान...तेजोमय हैं...सर्व शक्त्तिमान ...सर्वोच्च.. त्रिलोकीनाथ हैं... मनुष्य संसार के...सृष्टि रूपी वृक्ष के...बीज रूप हैं... निराकार हैं... सूक्ष्म ते सूक्ष्म.. अति सूक्ष्म........ सर्वशक्त्तिमान हैं.. परमात्मा के सानिध्य में... परमात्मा की अनंत किरणें...मेरे ऊपर ..प्रवाहित हो रही हैं... असीम स्नेह का सागर है... ज्ञान का सागर है... मुझ आत्मा को भी... ज्ञान के प्रकाश से..प्रकाशित कर दिया...दिव्य बुद्धि का वरदान दे रहे हैं.. जिससे मैं.....गुहाृ गोपनीय...ज्ञान को समझने की..क्षमता धारण कर रही हूँ... परमात्मा पिता से..निर्मल ..शक्त्तियों के प्रवाह से...मुझ आत्मा के...जन्म-जन्मांतर के विकर्म.. दग्ध हो गये...और मैं भी.. निर्मल पवित्र बनती जा रही हूँ... परमात्मा के असीम प्यार को...प्राप्त करने की पात्रता...स्वयं में धारण कर रही हूँ.. जिससे अनंत किरणों की बाहों में मुझे समाते जा रहे हैं...परमात्म मिलन का अनुभव करते हुए...मैं धीरे-धीरे........... अपने मन और. बुद्धि को...वापिस...इस पंचतत्व की दुनिया की ओर... शरीर में.... . भृक्रुटी के अकाल तख्त पर विराजमान होती हूँ... और अब सतो गुणों को...नित्य... हर कर्म में प्रवाहित करना है ... ओम् शान्ति ..शान्ति ......शान्ति ......
Read moreThis premise has 2 prominent hindu temples,. 1.Shravan Devi Mandir: According to Hindu mythology, when Goddess Parvati jumped into fire after his father insulted her husband, Lord Shiva. Hearing this Lord Shiva filled with anger and he carried the burnt body of Goddess, Goddess' different 52 body part scattered all through India. Here it is said Ear(Sharvan) was fallen.
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Prahlad Kund: There was a king Hiranyakashipu, he was aesthetic in nature and very cruel too. He made rule that no one will worship anyone. He is the only one to be worshipped in his kingdom. After sometime a son born to him. The son was very religious and it made Hiranyakashipu angry. So he ordered his sister (who has the divine shawl which gaurds her from fire) to sit with his son Prahlad in the fire. But in the end Prahlad was saved by God. It is said Prahlad used...
Read moreलोककथा है कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ मे भगवान शिव के अपमान को सहन न कर पाने पर माता सती ने यज्ञ की अग्नि में ही भस्म होकर अपने प्राण त्याग दिये। सती के पार्थिव शरीर को अपने कन्धे पर लेकर भगवान शिव निकल पड़े और करुण क्रन्दन करते हुए सारे जगत में भ्रमण करने लगे। इस समय समस्त सृष्टि के नष्ट हो जाने का भय देवताओं को सताने लगा। देवता ब्रह्मा और विष्णु की शरण में गये। तब भगवान विष्णु ने अपने चक्र के प्रहार से सती के शरीर के कई टुकड़े कर दिये। जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए हुए वस्त्र या आभूषण आदि गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थ स्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।
उस समय माता सती का कर्ण भाग यहाँ पर गिरा था, इसी से इस स्थान का नाम 'श्रवण दामिनी देवी' पड़ा। उत्तर प्रदेश के वाराणसी में विश्वेश्वर के निकट मीरघाट पर माता सती की 'कर्णमणि'[१] गिरी थी। यहाँ 'विशालाक्षी शक्तिपीठ' है।
देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है। इसमें से 'श्रवण देवी मंदिर' भी एक है। यहाँ की जनश्रुति के अनुसार यहाँ पीपल का प्राचीन पेड़ था, जिसकी खोह मे श्रवण देवी की प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई थी। ऐसा कहा जाता है की उस पीपल में स्वयं आकृति बनती और बिगड़ा करती थी। 1880 ई. में पूर्व खजांची सेठ समलिया प्रसाद को स्वप्न में माँ का दर्शन होने पर उन्होंने इसका विकास करवाया था। इस स्थान पर प्रतिवर्ष क्वार व चैत्र मास (नवरात्र) में तथा आषाढ़ मास की पूर्णिमा में मेला लगता है।
एक स्थानीय जनश्रुति के अनुसार यहाँ पीपल का प्राचीन पेड़ था, जिसकी खोह में श्रवण देवी की प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई थी।श्रवण देवी मंदिर उत्तर प्रदेश में हरदोई जनपद के मुख्यालय में स्थित है। इस मंदिर को देवी के शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि इस स्थान पर माता सती के कर्ण भाग का निपात हुआ था, इसीलिए मंदिर का नाम 'श्रवण देवी मंदिर' पड़ा।
लोककथामेला आयोजनचैत्र नवरात्र तथा आषाढ़ पूर्णिमा के दिन।
🙏🚩जय माँ...
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